बहुत दिन बाद आज एक कविता पढने को मिली जिसने मुझे भीतर तक
तृप्त कर दिया.लेकिन दुखी भी हूँ यह सोच कर कि ऐसी सार्थक कविता
मैं क्यों नहीं लिख पाई अब तक .
लीजिये आप भी आनंद इस शानदार कविता का जिसमें कवि ने अपना
हृदय खोल कर रख दिया है . मज़े की बात तो यह है कि यह कविता यहाँ
मैं मूल रचनाकार श्री अलबेला खत्री की अनुमति के बिना ही उनकी फेसबुक
वाल से चुरा कर लगा रही हूँ-
AAJ
EK KAVITA UN LOGON KE LIYE JO KAVITA SE PREM KARTE HAIN AUR
PRAKRITI KI MAHTTA JAANTE HAIN .....IS KAVITA KO AGAR MERE PYARE DOST
LIKE KARTE HAIN TO MAIN SAMJHUNGA KI MAINE KUCHH LIKHA ..AUR LOGON NE
MERA KUCHH PADHA - ALBELA KHATRI
प्रकृति में मानव की माता का आभास है
प्रकृति में प्रभु के सृजन की सुवास है
प्रकृति के आँचल में अमृत के धारे हैं
नदी-नहरों में इसी दूध के फौव्वारे हैं
प्राकृतिक ममता की मीठी-मीठी छाँव में
झांझर सी बजती है पवन के पाँव में
छोटे बड़े ऊँचे नीचे सभी तुझे प्यारे माँ
हम सारे मानव तेरी आँखों के तारे माँ
भेद-भाव नहीं करती किसी के साथ रे
सभी के सरों पे तेरा एक जैसा हाथ रे
गैन्दे में गुलाब में चमेली में चिनार में
पीपल बबूल नीम आम देवदार में
पत्ते - पत्ते में भरा है रंग तेरे प्यार का
तेरे मुस्कुराने से है मौसम बहार का
झरनों में माता तेरी ममता का जल है
सागरों की लहरों में तेरी हलचल है
वादियों में माता तेरे रूप का नज़ारा है
कलियों का खिलखिलाना तेरा ही इशारा है
तूने जो दिया है वो दिया है बेहिसाब माँ
हुआ है न होगा कभी, तोहरा जवाब माँ
तेरी महिमा का मैया नहीं कोई पार रे
तेरी गोद में खेले हैं सारे अवतार रे
सोना चाँदी ताम्बा लोहा कांसी की तू खान माँ
हीरों- पन्नों का दिया है तूने वरदान माँ
तेरे ही क़रम से हैं सारे पकवान माँ
कैसे हम चुकाएंगे तेरे एहसान माँ
तेरी धानी चूनर की शान है निराली रे
दशों ही दिशाओं में फैली है हरियाली रे
केसर और चन्दन की देह में जो बन्द है
मैया तेरी काया की ही पावन सुगन्ध है
यीशु पे मोहम्मद पे मीरा पे कबीर पे
नानक पे बुद्ध पे दया पे महावीर पे
सभी महापुरुषों पे तेरे उपकार माँ
सभी ने पाया है तेरे आँचल का प्यार माँ
पन्छियों के चहचहाने में है तेरी आरती
भोर में हवाएं तेरा आँगन बुहारती
सभी के लबों पे माता तेरा गुणगान है
जगत जननी तू महान है महान है
वे जो तेरी काया पे कुल्हाडियाँ चलाते हैं
हरे भरे जंगलों को सहरा बनाते हैं
ऐसे शैतानों पे भी न आया तुझे क्रोध माँ
तूने नहीं किया किसी चोट का विरोध माँ
मद्धम पड़े न कभी आभा तेरे तन की
लगे न नज़र तुझे किसी दुश्मन की
मालिक से मांगते हैं यही दिन रात माँ
यूँ ही हँसती गाती रहे सारी कायनात माँ
चम्बे की तराइयों में तू ही मुस्कुराती है
हिमालय की चोटियों में तू ही खिलखिलाती है
तुझ जैसा जग में न दानी कोई दूजा रे
मैया तेरे चरणों की करें हम पूजा रे
बच्चे-बच्ची बूढे-बूढी हों या छोरे-छोरियां
सभी को सुनाई देती माता तेरी लोरियां
तेरे अधरों से कान्हा मुरली बजाता है
तुझे देखने से माता वो भी याद आता है
तुझ से ही जन्मे हैं ,तुझी में समायेंगे
तुझ से बिछुड़ के मानव कहाँ जायेंगे
तेरी गोद सा सहारा कहाँ कोई और माँ
तेरे बिना मानव को कहाँ कोई ठौर माँ
ग़ालिब की ग़ज़लें ,खैयाम की रुबाइयाँ
पद्य सूरदास के व तुलसी की चौपाइयां
तेरी प्रेरणा से ही तो रचे सारे ग्रन्थ हैं
तूने जगमगाया माता साहित्य का पन्थ है
मानव की मिट्टी में मिलाओ अब प्यार माँ
जल रहा है नफ़रतों में आज संसार माँ
-अलबेला खत्री
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